डाॅ. संतोष सारंग
मुजफ्फरपुर. साल 2015 की बात है। तब मैं छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था। इसी बीच मैं खांसी-बुखार से पीड़ित हो गया। जांच के बाद पता चला कि मुझे टीबी हो गया है। यह जानकारी फैलते ही सभी बच्चे मुझसे ट्यूशन पढ़ना छोड़ दिये। मेरे पिताजी कपड़े की दुकान चलाते थे। जैसे-जैसे ग्राहकों को पता चला कि इनका बेटा टीबी रोग से ग्रसित है, वे सभी दुकान में आना बंद कर दिये। धीरे-धीरे कमाई बंद होने लगी। एक यक्ष्मा मरीज से किस तरह गांव-घर के लोग दूरी बना लेते हैं, खुद से उनको काट देते हैं, ये मानसिक उत्पीड़न मैंने भी झेली है। शब्दों में बयां यह पीड़ा एक टीबी सर्वाइवर का है, जिसका नाम है दिवाकर कुमार। दिवाकर आज एक स्वयंसेवी संगठन के साथ जुड़कर ‘टीबी चैंपियन’ के रूप में यक्ष्मा के खिलाफ जंग में जुटे हैं। दिवाकर मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के बसौली गांव के रहनेवाले हैं। दिवाकर की तरह ही इस जिले में करीब 20 टीबी चैंपियंस यक्ष्मा मरीजों के बीच काम कर रहे हैं। मरीजों को बीमारी के बारे में जागरूक करना, उन्हें खुद की कहानी बताकर प्रेरित करना, उनसे आत्मीय रिश्ता कायम कर टीबी को हराने के देशव्यापी अभियान में ये सभी टीबी चैंपियंस लगे हैं।
इन्हीं टीबी चैंपियंस में एक हैं आरती कुमारी, जो ‘रीच’ संस्था के जिला समन्वयक के रूप में टीबी के विरुद्ध लड़ाई में कमर कस कर लगी हैं। आरती की कहानी भी तमाम टीबी मरीजों की अंतहीन पीड़ा की कारुणिक अभिव्यक्ति है। आरती का ससुराल मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के केशोपुर गांव में है। आरती को शादी के कुछ दिन बाद पता चला कि उसका पति टीबी का मरीज है। पति के संसर्ग में रहकर वह भी इस बीमारी से ग्रसित हो गयी। परिवारवालों ने इन दोनों से दूरी बना ली। सिर्फ आरती की मां को छोड़कर सभी रिश्तेदार भी इनसे मुंह मोड़ लिये। आरती कहती हैं कि हमदोनों को तो छोड़िए, हमारे बच्चों को भी परिवार के लोग बर्तन में पानी पीने तक नहीं देते थे। आज भी आरती पुरानी बातों को याद करके सिहर जाती है। आरती का कहना है कि टीबी का मरीज दबा खा-खाकर तो टूट ही जाता है, उपर से अपने लोग जब कट जाते हैं, तो भयंकर पीड़ा होती है। जिस मरीज के साथ परिवार के लोग खड़े होते हैं, वे जल्दी स्वस्थ हो जाते हैं और जिस मरीज के साथ उनके परिवार के लोग भेदभाव व छुआछूत का व्यवहार करते हैं, वे स्वस्थ होकर भी मानसिक रूप से बीमार बने रहते हैं। इसलिए टीबी मरीजों के साथ घरवालों की सहानुभूति व स्नेह जरूरी है।
साथ ही स्थानीय जनप्रतिनिधियों, निजी चिकित्सकों के साथ-साथ आमलोागों को भी आगे आकर उनकी पीड़ा समझनी होगी, तभी हम टीबी के खिलाफ जंग जीत सकते हैं। दिवाकर और आरती की तरह ही लगभग टीबी मरीजों को इसी माफिक मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। दिवाकर कहते हैं कि टीबी आज लाइलाज बीमारी नहीं रही। सही समय पर पूरा इलाज होने पर मरीज स्वस्थ हो जाता है, लेकिन अफसोस कि बात है कि उनके घर-परिवार के लोगों, रिश्तेदार-मित्रों और समाज के लोगों का व्यवहार उनके साथ अमानवीय हो जाता है, जो उन्हें भीतर तक आघात करता है। टीबी मरीजों के प्रति सामाजिक धारणाएं, अंधविश्वास व नजरिए में बदलाव लाना बहुत जरूरी है। यह संक्रामक बीमारी, जिसे तपेदिक रोग भी कहते हैं, अक्सर मेहनतकश मजदूरों, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को ही होता है या फिर घनी आबादी में रहनेवाले लोगों को। निर्धन लोग पैसे के अभाव में पौष्टिक आहार नहीं ले पाते हैं, जिसके कारण उनमें रोगप्रतिरोधक क्षमता की कमी होती है। यही कारण है कि उनके शरीर पर बैक्टीरिया अधिक प्रभावी हो जाते हैं।
जिला यक्ष्मा केंद्र मुजफ्फरपुर इलाज कराने पहुंचे साहेबगंज प्रखंड के सेमरा मनाईन गांव के 21 वर्षीय मो. मुन्ना उन अभागे लोगों में शामिल है, जो बीमारी के साथ-साथ मानसिक, सामाजिक और आर्थिक संत्रास कई महीनों से झेलने को मजबूर है। मो. मुन्ना के साथ यक्ष्मा केंद्र आये उसके बहनोई मो. नसीब ने बताया कि जानकारी के अभाव में अबतक 50 हजार से एक लाख रुपए तक खर्च हो चुके हैं। मुजफ्फरपुर मेडिकल काॅलेज से लेकर आइजीआइएमएस, पटना तक की दौड़ डेढ़-दो साल से लगा रहे हैं। प्राइवेट नर्सिंग होम में भी दो बार नौ-नौ महीने के अंतराल पर इलाज चला लेकिन ठीक नहीं हुआ। गुमराह होकर भटकते रहे। शुरू में ही सरकारी जिला यक्ष्मा केंद्र में आ जाते तो जल्दी ठीक हो जाता। मो. नसीब रुंआसे शब्दों में कहता है कि मुन्ना मोतीपुर में मीट की दुकान चलाता था। जब से बीमार पड़ा है, कमाई बंद हो गयी है। पत्नी और एक बेटा के साथ वह भयंकर अभाव में जी रहा है। भोजन के भी लाले पड़ गये हैं। ऐसे में पौष्टिक आहार कहां से मिलेगा। बहुत सारा कर्ज भी हो गया है।
कई मरीजों के परिजनों ने बताया कि यहां के प्राइवेट नर्सिंग होम वाले लोगों को बरगला कर मरीजों की स्थिति को खराब कर देते हैं। जानकारी हो कि मुजफ्फरपुर शहर का जूरन छपरा ‘मेडिकल हब’ के रूप में ख्यात है। जूरन छपरा में सैकड़ों नर्सिंग होम और प्राइवेट क्लीनिक चल रहे हैं, जिनमें सरकारी डाॅक्टर भी प्रैक्टिस करते हैं। कमाई के चक्कर में टीबी मरीजों को नर्सिंग होम के संचालक बलगम जांच व इलाज के नाम पर बरगलाते हैं। जिला यक्ष्मा केंद्र तक जाने से पहले ही हजारों रुपए ठग लिये जाते हैं। मुजफ्फरपुर जिला यक्ष्मा केंद्र के एक कर्मचारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि सरकार ने 2025 तक टीबी को हराने का संकल्प लिया है, लेकिन हमें नहीं लगता है कि यह लक्ष्य होसिल होगा। इसके कई कारण हैं। एक तो जांच की गति व सिस्टम अनुकूल नहीं हैं, दूसरे मरीज घबराकर बीच में इलाज छोड़ देते हैं या फिर प्राइवेट डाॅक्टरों से इलाज कराना शुरू कर देते हैं। टीबी मरीजों की संख्या पिछले सालों की तुलना में घटने के बजाय कई प्रखंडों में बढ़ा है। मीनापुर सबसे प्रभावित प्रखंड है।
मुजफ्फरपुर जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ सीके दास ने बताया कि जिले में 16 पीएचसी समेत 23 केंद्रों पर बलगम जांच की सुविधा उपलब्ध है। मरीजों को मुफ्त दवा के साथ पौष्टिक आहार के लिए 500 रुपए प्रति माह के हिसाब से जबतक इलाज चलता है दिया जाता है। मरीजों को गोद लेने की प्रक्रिया भी शुरू की गयी है। हम मरीजों से अपील करते हैं कि जब जांच में टीबी का पता चले तो सीधे सरकारी अस्पताल जाएं, क्योंकि वहां सरकारी गाइडलाइन के अनुसार दवा दी जाती है। उन्होंने जानकारी दी कि जिले में पिछले साल करीब सात हजार टीबी मरीज मिले थे। 2025 तक टीबी को हराने के सवाल पर डाॅ दास ने कहा कि उन्मूलन का मतलब जीरो हो जाना नहीं है। वर्ष 2015 की तुलना में तीन इंडिकेटर यथा- इंसीडेंट रेट व डेथ रेट को 80 फीसदी तक घटाना एवं सारी जरूरी सुविधाएं मरीजों को उपलब्ध कराना है। मुजफ्फरपुर ने 60 फीसदी से ऊपर का लक्ष्य हासिल कर लिया है। हमारी टीम हेल्थ पार्टनर व एनजीओ के साथ अच्छा काम कर रही है। प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान को सफल बनाने के लिए डीएम, डीडीसी, सीएस कई कर्मियों ने 25 टीबी मरीजों को गोद लिया है। सभी मरीजों को फूड बास्केट दिये जा रहे हैं। जिला यक्ष्मा प्रयोगशाला प्रभारी मनोज कुमार ने बताया कि अबतक 70 मरीजों को गोद लिया जा चुका है। उन्होंने बताया कि जिले में अभी तकरीबन 3600 टीबी मरीज इलाजरत हैं।
अभी बीते मार्च में वाराणसी में विश्व टीबी सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बिहार के जिन पांच जिलों को टीबी उन्मूलन में बेहतर प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया था, उनमें मुजफ्फरपुर व समस्तीपुर जिला भी शामिल है। इन दोनों जिलों को गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया था, जबकि सीवान को सिल्वर और सारण व पूर्णिया को ब्राॅन्ज मेडल से नवाजा गया। इन पुरस्कारों के नामित सूबे के 12 जिलों के 10 प्रखंडों के 10 गांवों में राज्य के पदाधिकारियों के निर्देशन में यक्ष्मा मरीजों का सर्वेक्षण किया गया था। सर्वे के मुताबिक, गोल्ड मेडल प्राप्त मुजफ्फरपुर व समस्तीपुर में 2015 से अब तक इंसीडेंस रेट में 60 फीसदी मामले में कमी आयी है।
हालांकि, जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करते हैं। बहरहाल, भारत के राष्टीय टीबी प्रसार सर्वेक्षण 2019-2021 के मुताबिक, 55 सालों में देश में अपनी तरह का पहला छत्तीसगढ़ (5.30) में सबसे अधिक पीःएन अनुपात था। इसके बाद बिहार (4.15), कर्नाटक (4.08), पूर्वोत्तर राज्यों, तमिलनाडु और केरल का स्थान था। वर्ष 2022 में भारत में 24.24 लाख नए टीबी के केस सामने आए, जिनमें से सिर्फ 7.35 लाख निजी क्षेत्र से थे। पिछले साल मार्च महीने में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने जानकारी देते हुए कहा था कि पूरे प्रदेश में 1 लाख 32 हजार 145 नए टीबी मरीजों की पहचान हुई है। केंद्र सरकार से लेकर स्वास्थ्य विभाग तक ‘टीबी हारेगा, देश जीतेगा’ के नारे के साथ 2025 तक टीबी उन्मूलन का संकल्प दुहराया है। लेकिन टीबी मरीजों के ब्लगम जांच की गति अब भी कई जिलों में लक्ष्य से पीछे है। ऐसे में 2025 तक टीबी के खिलाफ जंग जीतना शायद ही मुमकिन हो।
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