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क्या झारखंड लूट व झूठ से उबर सकेगा इस चुनाव में

- प्रभात कुमार

क्या झारखंड लूट व झूठ से उबर सकेगा इस चुनाव में


झारखंड में चुनावी बिगुल अब कभी भी बज सकता है। लिहाजा यहां चुनाव की प्रक्रिया की शुरुआत के साथ-साथ राजनीतिक दलों के भीतर उम्मीदवारी और रणनीति को लेकर अब मंथन अंतिम दौर में है। नई-नई पार्टियों का भी उदय हो रहा है और नए-नए लॉलीपॉप के लिए भी दिमागी कसरत जारी है लेकिन मैया और गोगो दीदी योजना के सच को अगर झारखंड की जनता समझ लेती है। तो देश और प्रदेश की सत्ता पर काबिज सरकारों की इमारत हिल सकती है। जहां जमीन पर हजार रुपए प्रति सिलेंडर गैस मिल रहा है। वही  घोषणा पत्र में ₹500 गैस सिलेंडर देने का वायदा भी जारी है। सत्ता और कुर्सी के लिए चुनाव के मौके पर खैरात की घोषणा ऐसे की जाती है। जैसे इस देश के खजाने पर सिर्फ राजनेताओं का ही हक है। चाहे तो इस देश को अपनी सुख सुविधा और कुर्सी के लिए भिखारी बना दें। हां, अब इस मामले में देश में अपवाद खोजना कठिन होगा।झारखंड में अभी हाल में ही सोरेन सरकार ने चुनाव से 3 महीने पहले जेल यात्रा के बाद जिस तरह से घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। अब उसके जवाब में भाजपा ने भी एक प्रण पत्र जारी किया है। जिसमें भाजपा की सरकार बनने के बाद लगभग तीन लाख सरकारी नौकरी और 5 लाख स्व रोजगार की बात कही गई है। क्या यह पंच प्रण के बदौलत संभव होगा।

झारखंड के लिए घोषित किया गया पंच प्रण मोदी की गारंटी है। मोदी का संकल्प है। नेता पीएम मोदी है तो जाहिर सी बात है कि भाजपा में सब कुछ उनकी बदौलत ही है। वैसे, ऐसी प्रतिज्ञा कोई पहली बार भारतीय इतिहास में नहीं है। अभी-अभी लोकसभा के चुनाव में भी कई संकल्प और कई प्रतिज्ञा भाजपा ने लिया। अब उनके ऊपर कितना अमल किया जा रहा है। यह तो जनता ही बता सकती है। मेरा इस बारे में कुछ टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।

वैसे, झारखंड मुक्ति मोर्चा भी घोषणाओं की झड़ी लगाने में भाजपा से पीछे नहीं है। 5 साल की सरकार में 4 साल 9 महीने भोग-राग में बिताने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा भी अपने घोषणा पत्र को लागू करने के मामले में चुनाव से 3 महीने पहले होश में आई है। मैया योजना के साथ किसानों के ऋण माफी की योजना से भाजपा की चिंताएं निश्चित तौर पर बढ़ी  है। वैसे यह स्वाभाविक भी है। 

वर्तमान में भाजपा झारखंड में कमजोर दिखती है। खासकर आदिवासी समाज में उसकी पैठ मजबूत नहीं है। वही कुर्मी महतो समाज में भी उसकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गई है। उसका पार्टनर आजसू जयराम के आने के बाद सांसत में है। फिर भी भाजपा के पास हिंदुत्व का कार्ड बड़ा हथियार है। वैसे , भाजपा के पिछले शासन को देखें तो झारखंड की जनता में उसके नेतृत्व के प्रति विश्वास का अभाव दिखता है। अगर स्थापना काल की बाबूलाल मरांडी सरकार को छोड़ दे तो शेष का शासन काल उनके भीतर विश्वास नहीं जगा सका। झारखंड में एक बार फिर से बाबूलाल मरांडी अपना दल बनाने से लेकर कई मोर्चे और प्रयोग के बाद भाजपा में लौट आए हैं लेकिन अब उनकी वह विश्वसनीयता नहीं बची है जो स्थापना काल के समय थी। वैसे, झारखंड में हेमंत सोरेन सरकार से पहले के भाजपा के मुख्यमंत्री रघुवर दास की लॉ एंड ऑर्डर, कुछ विकास और बिजली की उपलब्धता को लेकर जनता के मन में सकारात्मक भाव हैं। यह सच है कि झारखंड में लॉ एंड ऑर्डर की समस्या को लेकर जनता में असुरक्षा की भावना है।इधर,मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ ईडी और सीबीआई को आजमाया गया था। कितनी सफलता मिली। यह तो प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की बता सकते हैं। वैसे यह दांव जनता की नजर में अगर देखा जाए तो उल्टा ही पड़ा। 

खास तौर पर हेमंत सोरेन ने अपनी धर्मपत्नी कल्पना सोरेन की जगह चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया। उसने मोदी सरकार के इरादे पर पानी फेर दिया। इसके कारण हेमंत सोरेन पर वह आरोप नहीं मंढा जा सका।जो बिहार में लालू प्रसाद यादव पर लगा। हाल के चंपई सोरेन प्रकरण ने भी भाजपा के इरादे को भी साफ कर दिया। जिससे भाजपा मजबूत होने की जगह कमजोर हुई। भाजपा राज्य की सत्ता की कुंजी अपने हाथ में चाहती है लेकिन यह आदिवासी समाज को दरकिनार कर संभव नहीं है। भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस ने जो वनवासी कल्याण योजना के तहत आदिवासी समाज में जो उम्मीदें जगाई थी। वह आज बुझ चुकी है।

वैसे, झारखंड की जनता  झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ-साथ कांग्रेस 23 सालों के कुशासन और झारखंड के खजाने की लूट, प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों के भी लूट को भी देखा है। वह समझती है। बिहार के बंटवारे से पहले भी जिस तरह से कांग्रेस के मंत्री और अन्य बिहारी नेता झारखंड से अपने ब्रीफकेस भरकर लौटते थे। लालू-राबड़ी के राज्य का भी यह प्रकरण पुराने लोगों को याद होगा। यही कारण है कि युवा नेता जयराम महतो का अग्रेशन बिहारियों को लेकर भी है। दर्द और पीड़ा बिहार के वैसे लोगों को लेकर भी है जो कोयला खदान के बाहर लूट की दुकान खोल बैठे थे। उन्होंने इनका शोषण किस तरह किया। यह भी एक सवाल है। आज भी शोषण की बड़ी-बड़ी इमारत में इनकी कितनी भागीदारी है। यह तो विचार का विषय होना ही चाहिए।

इसी बात को लेकर है। यह गुस्सा उनके भीतर फूट रहा है। इसके लिए असली दोषी कौन है!

 जयराम के साथ झारखंड में लोकसभा चुनाव के बाद जो जमात झारखंड में जुड़ी उसका गुस्सा स्वाभाविक नहीं है। झारखंड में जन्म लेने से कोई झारखंड दर्द और पीड़ा का का क्या अनुभूति कर्ता नहीं हो जाता। भले ही हुआ लोजपा के चिराग पासवान जैसे नेता क्यों ना हो? यही कारण है कि आज की तारीख में झारखंड में जिस तरह से जयराम महतो ने वहां के नेताओं की नींद हराम कर रखी है। वह स्थित भारतीय जनता पार्टी जैसी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी में भी नहीं दिख रहा है।

 जयराम का कहना है कि इन पार्टियों के लॉलीपॉप को झारखंड की जनता समझती है।वह अपने कुर्मी महतो समाज के एक रिश्तेदार सांसद चंद्रप्रकाश महतो से लेकर बरसते हैं। उनके खिलाफ प्रहार करते हैं और आजसू के नेताओं पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि जनता का समर्थन आजसू को रांची में माल खोलने के लिए नहीं मिला था। झारखंड के खजाने के लूट के लिए नहीं था और वह प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों के काले धंधे के लिए भी नहीं था। उनके गठबंधन की सरकार में लूट और झूठ की हो रही तो दोषी कौन है?

 जनता आज भी जिस तरह से आज भी गरीबों के दंश को झेल रही है। उसका वह हिसाब जयराम झारखंड की सरकार से अपनी सभा में मांग रहे हैं। वैसे, जयराम की बातों में भी कितना दम है। यह तो आने वाले समय में ही तय करेगा। यह चुनाव में तय होगा।अभी उसके अग्रेशन को झारखंड का युवा समाज पसंद कर रहा है। 

झारखंड में लगभग 30 फ़ीसदी आदिवासी समाज है। जो झारखंड का सबसे बड़ा वोट बैंक है। इसके बाद महतो समाज है। जिसकी भागीदारी 22 प्रतिशत है। इसके बाद दलित समाज है। जिनकी संख्या लगभग 16 फीसदी है। फिर  अल्पसंख्यक समाज है। जो लगभग 14 फ़ीसदी है। कुल मिलाकर इनकी संख्या 82 फ़ीसदी हो जाती है।शेष के हिस्से 18 फ़ीसदी है। इसी 18 फ़ीसदी में कुशवाहा, यादव,वैश्य और ये तमाम अगड़ी-पिछड़ी जातियां हैं।

किसी जमाने में झारखंड मुक्ति मोर्चा की ताकत आदिवासी समाज के साथ-साथ कुर्मी महतो समाज था। तब कांग्रेस के साथ मूल रूप से अल्पसंख्यक और दलित मतदाता के साथ-साथ झारखंड की अगड़ी जाति और कुछ आदिवासी समाज का हिस्सा था। तब  भाजपा ने इस बीच अपने लिए जगह बनाना शुरू किया । फिर फिर आजसू के उदय हुआ।‌इसके बाद झारखंड में राजनीति एक नए चौराहे पर खड़ी हुई। फिर एक बार आज वही स्थिति  है। वैसे, आज कुर्मी समाज झारखंड मुक्ति मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और आजसू के साथ-साथ नए दावेदार जय राम महतो की पार्टी के बीच प्रसाद की तरह बंटी हुई है। लेकिन जयराम की राजनीति ने एक नए संकट को जन्म दिया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी ताकत एक बार दिखी। अब विधानसभा चुनाव में इनका क्या रुख रहता है। यह देखना शेष होगा। 

झारखंड में अब कभी भी चुनावी बिगुल बज सकता और चुनाव के तारीखों का ऐलान हो सकता है। इस मौके पर जनता के पास झारखंड प्रदेश स्थापना के बाद से लेकर  23-24 बरसों के शासन लेखा-जोखा और समीक्षा करने का अवसर है। अगर सच कहा जाए तो बिहार के बंटवारे के बाद झारखंड की स्थापना जिन सपनों को लेकर हुई और जो आम जनता में इच्छा- आकांक्षा थी। उसके पोस्टमार्टम का यह अवसर है।यह सोचने और मंथन करने का मौका है। 

वह भारतीय जनता पार्टी  हो या कांग्रेस अथवा झारखंड मुक्ति मोर्चा और इन दलों के साथ गठबंधन में शामिल दल। सभी की मीमांसा जरूरी है ‌ इसमें निर्दलीय विधायक  राजनेता मधु कोड़ा को भी शासनकाल को शामिल किया जा सकता है। झारखंड के 23 वर्षों का इतिहास गवाह है।  क्या- क्या कारनामे रहे राजनेताओं के। मुझसे बेहतर झारखंड के लोग इस बारे में जानतें हैं और वह इसका मंथन भी कर सकती हैं। याद रहे,झारखंड मुक्ति मोर्चा वही पार्टी है। जिनके सांसदों पर एक जमाने में बदनुमा दाग लगे थे लेकिन आज यह भारतीय राजनीति के लिए आश्चर्य नहीं। वैसे, झारखंड ने भी महात्मा गांधी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण बिरसा मुंडा जैसे नेता के सपनों को ताक रख दिया। अब अब इसका अपवाद कैसे कोई राजनेता कैसे हो सकता है। यह भी सवाल विचारणीय है। क्या झारखंड विधानसभा चुनाव में अपने 24 सालों के इतिहास का हिसाब ले सकेगा।

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