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प्रधानमंत्री मोदी के सामने और कितना झुकिएगा नीतीश जी!

- झुकते आप हैं और दर्द आपके समर्थकों को होता है 

* प्रभात कुमार

प्रधानमंत्री मोदी के सामने और कितना झुकिएगा नीतीश जी!


जितनी बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने यह कहते हैं कि अब इधर-उधर नहीं जाएंगे। इस वाक्य को सुनते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समर्थकों को ग्लानि और पीड़ा होती है। वह दुखी होते हैं। संभवत: उनके समर्थकों का स्वाभिमान आहत होता है। ऐसा महसूस होता है कि वह कुर्सी के लिए अब प्रधानमंत्री के आगे कितना झुकेंगे। यही नहीं इस वाक्य पर अब लोग उपहास करते हैं। तंज कसने वाले भी कम नहीं है।

दरअसल बिहार में वर्तमान एनडीए की सरकार में वह तालमेल और आपसी प्रेम नहीं है जो 2005 और 2010 में था। यह भी कहा जा सकता है कि अटल के एनडीए और मोदी के एनडीए में बड़ा फर्क है। सुशील मोदी और नरेंद्र मोदी में बड़ा अंतर है।फिर भी देश की राजनीति में यह अकेला उदाहरण है कि किसी राज्य का ऐसा मुख्यमंत्री जो 20 वर्षों तक अपनी कुर्सी पर बना रहा और गठबंधन उसके आगे पीछे रही। 

बिहार में गठबंधन बदलती रही लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बदले। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी शर्तों पर शासन किया और बिहार जैसे राज्य में सरकार चलाया। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन में रहते हुए भी न कोई दंगा और न नरसंहार होने दिया। उन्होंने मुसलमान के लिए जितना काम किया। आजादी से अब तक का इतिहास इसका गवाह है। उन्हें आज की तारीख में भी सांप्रदायिकता कबूल नहीं है। बिहार में आधी आबादी की तरक्की और विकास मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की देन है। दलित में भी कमजोर दलित और पिछड़ा में भी कमजोर पिछड़ा को राजनीति में जो भागीदारी दी। उनके विकास और उत्थान के लिए जो काम किया। वह अनूठा है।

विकास के मामले में विश्वकर्मा से कम नहीं रहे। बिहार आज जहां खड़ा है।उसकी उन्नति और विकास का एकमात्र देन एक  शिल्पीकार नीतीश कुमार को है। राजनीतिक विश्लेषक और मुख्यमंत्री के शुभचिंतक यह मानते हैं कि बिहार की कुर्सी पर मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के बनी रहने के चाहत के पीछे असली मंशा बिहार का विकास ही है। अभी भी वह मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने शेष शेष सपने को पूरा करना चाहते हैं। अधूरे कार्यों को पूरा करने की चाहत है। इसे भले ही इसे उनके कुर्सी प्रेम से जुड़कर देखा जा रहा हो लेकिन सोच इससे अलग है। यही नहीं उनके स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति को लेकर जो टीका टिप्पणी हो रही है। इसके बावजूद उनके आलोचक भी यह मानते हैं कि अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का 25% ब्रेन अगर काम कर रहा है, तो वह अपने विरोधियों पर बहुत भारी हैं।

जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सवाल है। उनके साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का संबंध बनता बिगड़ रहा है। वैसे, उनके समालोचक यह भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कमजोर करने की कोशिश की गई है। आज की तारीख में तो उनके दल को कमजोर और भाजपा में विलय करने की कोशिश जैसा भी आरोप लग रहा है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कई भरोसेमंद मंत्री और नेता जनता दल यूनाइटेड से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता करते दिख रहे।

फिर भी नीतीश कुमार का इकबाल अभी भी बना हुआ है।यह सच है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इतने बड़े राजनीतिक सफर के बावजूद व्यक्तिगत तौर पर उनके ऊपर कोई भ्रष्टाचार का धब्बा नहीं है। सांप्रदायिकता का कोई आरोप नहीं है। आज का बिहार दंगा और नरसंहार से बाहर निकल चुका है। विकास की रोशनी गांव- गांव तक पहुंची है। पानी हो या बिजली, सड़क हो या पूल- पुलिया का'जाल सा बिछ गया है।

यह भी कहना अनुचित होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का बिहार के विकास कार्यों में कोई योगदान नहीं है? बिहार को विकास के लिए केंद्र सरकार से राशि नहीं मिली है, लेकिन जितना प्रोपेगेंडा और मीडिया का प्रचार है।वैसी भी स्थिति नहीं है। राज्य के स्मार्ट सिटी का हाल देख लिया या केंद्रीय विश्वविद्यालय, एम्स, एयरपोर्ट अन्य किसी बड़ी उपलब्धि को देख लें। ताजा मामला पूर्णिया एयरपोर्ट का है। दो विमान का उड़ना कितनी बड़ी उपलब्धि है और मीडिया में कितना प्रचार जारी है।

अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शासनकाल को देखा जाए तो 20 साल के शासनकाल में 10- 11 साल ऐसे भी रहे। जब नीतीश कुमार केंद्र की सरकार के विपक्ष में थे। इससे बड़ी बात मुख्यमंत्री मंत्री नीतीश कुमार के शासन काल का स्वर्ण युग 2005 से 2014 के बीच का रहा। तब देश के प्रधानमंत्री माननीय भाई नरेंद्र मोदी जी नहीं थे। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के राम- लक्ष्मण की जोड़ी थी और केंद्र में यूपीए की डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार थी। तब बिहार और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चर्चा इंटरनेशनल पत्रिका टाइम में भी होती थी इंडिया टुडे ही में ही नहीं टाइम के कवर पेज पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तस्वीर छपती थी। 

उस समय तमाम लोग इस बात के साक्षी हैं कि एक वह नीतीश कुमार था, जो किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं था और आज वह भी दिन है। जब बार-बार नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे झुकते हैं। पेड़ में फल लगने से वह झुक जाता है। अपने श्रेष्ठ के आगे झुकना कोई बुरी बात नहीं लेकिन संभवत जिस अंदाज में बार-बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष नतमस्तक होते हैं। कहीं न कहीं इसके पीछे बिहार का चुनाव और मुख्यमंत्री की कुर्सी आम लोगों को दिखती है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समर्थकों और उनके वोटरों की नाराजगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर इसलिए भी है कि जब से वह प्रधानमंत्री बने हैं। तब से लगातार बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कमजोर करने की हर संभव कोशिश की गई। चाहे 2020 का चुनाव हो या 2025 का होने वाला चुनाव। जिस तरह से दबाव की राजनीति को जनता महसूस करती है। उसके कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के प्रति एक प्रति द्वेष दिखता है। लोग अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हनुमान चिराग पासवान को नहीं भूल पाते। खास तौर पर पर जिस तरह से  2020 के चुनाव में जनता दल यूनाइटेड को बिहार में मात्र 43 सीटों पर विधानसभा में सीमित कर दिया गया। वह 2015 के चुनाव में 72 सीटों पर जीत दर्ज की थी लेकिन 2020 के चुनाव में महागठबंधन से अलग होकर जब एनडीए के साथ चुनाव लड़ा तब उसकी संख्या मात्र 43 ही बची।

यह बिहार में दो मोदी का अंतर है। बिहार में अटल बिहारी वाजपेई के जमाने का एनडीए भले ही उनके सरकार के रहते बिहार में सरकार नहीं बन सका लेकिन उनके नेतृत्व में जो बिहार में एनडीए की नींव परीक्षा वह इतनी मजबूत थी कि 2005 में उसे कोई सरकार बनाने सका। मालूम होगी 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार वापसी नहीं हो सकी थी। फिर भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और डिप्टी चीफ मिनिस्टर सुशील मोदी की जोड़ी ने बिहार में एक मजबूत एनडीए की सरकार के रूप में भी रखी।

2005 के नवंबर के चुनाव में जनता दल यूनाइटेड को 88 और भारतीय जनता पार्टी को 55 सीट मिला। जिसने अपने कामकाज के बदौलत 2010 में अपनी कुल सीट में बढ़ोतरी की और जनता दल यूनाइटेड अपने सर्वोच्च संख्या 115 सीटों पर पहुंची। वहीं 2010 में भारतीय जनता पार्टी 91 सीट जीती। एनडीए का 206 सीट जीतने का रिकॉर्ड कभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संभव नहीं हो सका है। 2015 में जब जनता दल यूनाइटेड एनडीए से अलग हुई, तो भारतीय जनता पार्टी मात्र 53 सीट पर सिमट गई और जनता दल यूनाइटेड को भी नुकसान हुआ 115 से वह घटकर 71 पर आ गई। वहीं एनडीए में आपसी विवाद का फायदा आरजेडी को हुआ। वह 25 से फिर 80 पर पहुंच गई। एनडीए का इरादा बिहार में 225 सीट जीतने का है, लेकिन जो कड़वाहट एनडीए में दिख रही है। वह मुमकिन नहीं दिख रहा। अब तक जो भी पोल सर्वे हुए हैं। उसमें इसकी संभावना नहीं दिख रही।

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