- बिहार में सत्ता के लिए बेचैन है भाजपा
- माटी की मूरत और आत्मसमर्पण के बावजूद नहीं है भरोसा
* प्रभात कुमार
कोई 11 सालों से किसी भी प्रदेश में या देश में जब-जब चुनाव का समय आता है या भारतीय जनता पार्टी किसी गंभीर मुद्दे में घिरती हुई या फंसती हुई दिखती है। तब- तब देश को एसआईआर जैसे मुद्दे में उलझा दिया जाता है। क्या इस देश में रोटी- रोजगार का मुद्दा खत्म हो गया है। सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य की एक समान सुविधा इस देश की जरूरत नहीं है। देश जिस भ्रष्टाचार और अराजकता के दौर से गुजर रहा है। यह विचार का मुद्दा हमारे सांसद और विधानमंडल में नहीं होना चाहिए। लेकिन संसद से विधानसभा तक एसआईआर के मामले में उलझा है और देश के उपराष्ट्रपति अपना इस्तीफा अचानक दे रहे हैं और प्रधानमंत्री विदेश के दौरे पर निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी और उनको समर्थन देने वाली सारी पार्टियों को यह बताना चाहिए कि देश की सरकार देश की स्थिति को लेकर कितना गंभीर है। मंदी का दौर है। बेरोजगारी का दौर है। सरकार के प्रति जनता के एक बड़े हिस्से में विश्वास की कमी का दौर है। सरकार के हर फैसला पर शंका इस देश का हिस्सा बन गया है। एसआईआर भी इसी का एक हिस्सा है। श मैं नहीं कई लोग कहते हैं। यह आप कई वरिष्ठ राजनेताओं का भी मानना है। अब तो सरकार के मंशा पर सवाल करना भी किसी दिन देशद्रोह के दायरे में आ सकता है। सच कहने में भी डर लगता है। इस देश में अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन सवाल यह भी है कि पुराने संसद को जब इस देश में बदला जा सकता है। नए संविधान की बात हो सकती है। अभिव्यक्ति की आजादी कब तक कायम रहेगी?
अब तो वर्तमान सरकार मनुस्मृति और हिंदू राष्ट्र का एजेंडा तय करने में लगी है। ऐसे में यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि देश दिल्ली से चल रही है या नागपुर से? देश को नरेंद्र मोदी और अमित शाह चला रहे हैं या मोहन भागवत? बिहार में ऐसा क्या है? जिसके कारण अचानक देश की सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग को बिहार में एसआईआर की जरूरत पड़ गई।
अगर आज की तारीख में बिहार में देखा जाए तो सरकार की हालत माटी की मूरत जैसी है। अराजकता,भ्रष्टाचार कानून व्यवस्था की तुलना जंगलराज से शुरू हो गई है। लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि सरकार बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चला रहे हैं या भारतीय जनता पार्टी। चर्चा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सिर्फ माटी की मूरत रह गए हैं और सरकार नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इशारे पर चल रहा है। यही कारण है कि प्रतिपक्ष बिहार में कठपुतली शासन का आरोप लगा रहा है। फिर भी भारतीय जनता पार्टी को यह विश्वास नहीं हो रहा है कि 2025 के चुनाव में बिहार में एनडीए फिर से सत्ता में लौटेगी और इस बार भारतीय जनता पार्टी का कोई मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा हो सकेगा।
भारतीय जनता पार्टी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अभी भी इस कदर डरी हुई है कि उसके पलटी मारने की संभावना से इनकार नहीं कर पा रही। डर गया आलम है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के 2025 से 30 फिर से नीतीश के नारे के कारण भारतीय जनता पार्टी के विधायक हरिभूषण बचौल को यह कहना पड़ रहा है कि नीतीश कुमार उपराष्ट्रपति के लिए सबसे सुयोग्य उम्मीदवार हैं। बचौल ऐसा कहने वाले अकेला नेता नहीं। यह आवाज बिहार बीजेपी में उठ रही है।
देश में अचानक नए-नए फैसले और मुद्दे क्या पुराने गड़े मुद्दे को भूल जाने के लिए उठाए जा रहे हैं यह यह हो गया है कि इस देश में अब राज पाठ संविधान से नहीं अपनी मनमर्जी से चल रहा है। भले ही यह सवाल कुछ खास लोगों को अटपटा लगे लेकिन जिस तरह से इसके देश के महामहिम उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से इस्तीफा ले लिया गया या उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया। यह अनबूझ पहेली पूरे देश के सामने बना हुआ है। पूरा देश बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता गहन पुनरीक्षण कार्यक्रम को लेकर चिंतित है। यह मामला इतना गंभीर है कि अब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को भी यह चिंता सताने लगी है कि महाराष्ट्र के बाद जो बिहार में मॉडल अपनाया गया। वह अगर प्रदेश में भी अपनाया गया तो फिर उनके लिए कितनी बड़ी उलझन होगी।
विमर्श का विषय यह भी है कि देश में आरएसएस कितना सशक्त और प्रभावशाली हो गया है कि वह अपने एजेंडे को केंद्र में दो बैसाखी के बावजूद बिना किसी चिंता के लागू करने के लिए लगातार एक के बाद दूसरी कोशिश से कर रहा है। बिहार में जो हो रहा है, क्या वह एनआरसी को लागू करने की कोशिश है? सवाल यह भी है कि कोई एक साल पहले बिहार में जिस वोटर लिस्ट से चुनाव हुआ। उसमें चुनाव से पहले गहन रूप से सुधार की जरूरत अचानक चुनाव आयोग ने क्यों महसूस की?
क्या इसका असली कारण लोकसभा चुनाव में बिहार से सटे बांग्लादेश के निकट के जिलों में एनडीए की हार है। किशनगंज पूर्णिया और कटिहार में हार का दर्द है। अथवा मध्य बिहार में सर्वहारा के वर्ग के वोटरों से मिले हार का दर्द है। जिसके कारण जहानाबाद, आरा, काराकाट, बक्सर, सासाराम औरंगाबाद में हार मिली। क्या इसी के कारण बिहार के मतदाता सूची से बड़ी संख्या में अकलियत और सर्वहारा के वोटरों का नाम काटने की कोशिश हो रही है।
बिहार में एनडीए सरकार के बावजूद सांप्रदायिक सौहार्द और वर्ग संघर्ष से 20 सालों तक राहत रही। इसके पीछे निश्चित तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो आज माटी के मूरत की तरह सारा तमाशा देख रहे हैं। उनका बड़ा योगदान रहा।
यह और बात है कि बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार ने अब तक भाजपा के एजेंडा पर अंकुश लगा रखा था। जो बीते लोकसभा चुनाव के बाद से नहीं दिख रहा है। अब इसका कारण विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव का यह अनुमान की मुख्यमंत्री अचेत अवस्था में हैं। बीमार हैं और अब वह भाजपा के पिंजरे में कैद हैं।
दूसरी तरफ यह भी सच है कि जनता दल यूनाइटेड अब का एक बड़ा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी में अघोषित रूप से विलय कर चुका है। जिसके प्रतिनिधि के तौर पर केंद्र के मंत्री और कई सांसद साथ ही विजय चौधरी अशोक चौधरी जैसे कई मंत्री और कई विधायक हैं। अब तो यह हालत है कि ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार जैसे नेता कर्पूरी ठाकुर के पदचिन्हों पर चलने वाले नेता भी किस धारा में हैं। यह बता पाना आसान नहीं। यही हालत केंद्र में मंत्री कर्पूरी ठाकुर के पुत्र रामनाथ ठाकुर का भी है। जनता दल यूनाइटेड में जो नेता भारतीय जनता पार्टी के नीति और सिद्धांत को नहीं पचा पा रहे हैं। उनके लिए अब अपना दल ही बेगाना नजर आ रहा है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा के बारे में पहले से ही सब कुछ विदित है। साथ ही संजय गांधी, ललन सरार्फ जैसे नेता पहले ही भाजपा के गोद में जाकर बैठ चुके हैं। फिर भी भारतीय जनता पार्टी को बिहार में बहुमत और सत्ता के लिए तरह-तरह के पापड़ बेलने पर रहे हैं।
(लेखक दैनिक हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं।)
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