- दलाई लामा की 89वीं जयंती पर विशेष
- प्रभात कुमार
तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु एवं पूर्व राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा महात्मा गांधी के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े नेता हैं, जिन्होंने तिब्बत की आजादी के लिए सत्य और अहिंसा का मार्ग चुना है। वह इसी रास्ते अपने देश की आजादी के लिए आज भी संघर्षरत हैं। वह भारत को अपना गुरु देश मानते हैं और मित्र राष्ट्र मानते हैं।
वैसे, वह अपनी ढलती उम्र के साथ अब आजादी की जगह स्वायत्तता लेकर भी चीन के साथ समझौता के लिए तैयार हैं। फिर भी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दलाई लामा से किसी भी समझौते के लिए इच्छुक नहीं हैं। वह तिब्बत का दवा मानने से लगातार इनकार कर रहे हैं। वहीं भारत की सरकार भी चीन के तानाशाही रवैया और अतिक्रमण नीति के खिलाफ कुछ भी खुलकर बोलने से लगातार परहेज कर रही है। दलाई लामा के उम्मीद के बावजूद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत की सत्ता का बागडोर संभालने के बाद ताइवान को लेकर तो चीन को झटका दिया है लेकिन तिब्बत के सवाल पर वह चुप हैं। मालूम हो की 2014 में प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से तिब्बत के निर्वाचित सरकार के प्रधानमंत्री को समारोह में शामिल होने का आमंत्रण भी मिला था लेकिन उसके बाद से यह अवसर अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। वैसे, प्रधानमंत्री मोदी से दलाई लामा की उम्मीद आज भी बनी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं। सिर्फ एक बार दलाई लामा के जन्मदिन पर उन्हें बधाई दी है लेकिन दलाई लामा से मिलने में वह परहेज कर रहे हैं। भारत में 2010 के बाद से किसी भी प्रधानमंत्री ने दलाई लामा से आधिकारिक तौर पर मुलाकात नहीं किया है। उनसे मिलने वाले अंतिम प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह रहे।
वर्तमान में तिब्बत के 14 वें दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म और तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक गुरु हैं। फिर भी भारत में आज की नई पीढ़ी दलाई लामा को एक नोबेल पुरस्कार विजेता और अधिकतम शांतिदूत के रूप में ही जानती है लेकिन उनके धर्म संस्कृति और राजनीतिक विरासत से वह बिल्कुल अपरिचित है। आज उनके जन्मदिन के मौके पर दलाई लामा पर उनका एक संक्षिप्त परिचय और तिब्बत-भारत के पुराने संबंध की चर्चा जरूरी है। साथ ही इस मौके पर भारत में दलाई लामा निर्वासित सरकार और तिब्बत आजादी के लिए संघर्ष को भी जानना जरूरी है।
मालूम हो की 1950 के पहले भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट था जिसका नाम तिब्बत है। जो तिब्बती बौद्ध धर्म के मानने वाले साधकों के लिए एक पुण्य साधना की भूमि थी। इस आध्यात्मिक भूमि के प्रमुख दलाई लामा होते थे लेकिन चीन की आजादी के कुछ वर्षों के बाद यहां जिस तरह से चीनी सैनिकों का तांडव शुरू हुआ और बौद्ध मठों के विध्वंस के साथ साधकों पर जुल्म ढाये गए। अत्याचार हुए और खास तौर पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और व्यभिचार हुए। उसके कारण वहां चीनी सैनिकों के खिलाफ जन विद्रोह हुआ लेकिन 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे और तिब्बतियों के विद्रोह के विफल हो जाने के बाद दलाई लामा को जान बचाकर वहां से भागना पड़ा। वह अपने समर्थकों के साथ चीन से भारत के लिए दुर्गम मार्ग होकर पैदल यात्रा कर भारत पहुंचे। कालांतर में उनके साथ-साथ बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन कर भारत में शरण ली। कुछ लोग दुनिया के अन्य देशों में भी शरण लिया। इसके बाद कई वर्षों तक भारत में रहकर दलाई लामा ने निर्वासित सरकार का नेतृत्व किया। अब वह इन दायित्व से मुक्त होकर अपनी आध्यात्मिक साधना में जुटे हैं और अधिकतम समय इसी में उनका व्यतीत हो रहा है कुछ समय का उपयोग हुआ तिब्बत के सवाल पर दुनिया भर में दबाव समूह बनाने और अपनी अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए जनमत निर्माण को लेकर कर रहे हैं। उनकी अंतिम इच्छा तिब्बत की स्वायत्तता और चीन पर इसके लिए वैश्विक दबाव है। वह तिब्बत के सवाल पर पूरी दुनिया से आज भी न्याय के लिए आकांक्षी हैं।
दलाई लामा का 6 जुलाई को जन्मदिन है। इनके 89 वें जन्मदिन पर पूरे देश भर में दलाई लामा के दीर्घायु होने और स्वास्थ्य कामना के लिए प्रार्थना सभा का आयोजन किया जा रहा है। यह आयोजन दुनिया के कई देशों में भी हो रहा है। इस मौके पर तिब्बत के सवाल पर चर्चाएं हो रही है। संगोष्ठी और परिचर्चा का दौरा जारी है। भारत की जनता दलाई लामा के जन्मदिन पर अपने मित्र देश तिब्बत को उनके सवाल पर समर्थन देने के लिए जगह-जगह आयोजनों में शामिल हो रही है और अपने सरकार पर चीन के खिलाफ दबाव बनाने की मांग भी कर रही है। वैसे, दलाई लामा फिलहाल अमेरिका के एक अस्पताल में अपने घुटने की सर्जरी करने के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए भर्ती हैं। दलाई लामा को तिब्बत के मुद्दे के समाधान को लेकर भारत से कुछ ज्यादा उम्मीद है। इसका सबसे बड़ा कारण भारत और तिब्बत के बीच मैत्री संबंध और आध्यात्मिक रिश्ता रहा है। महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी के अनुयायी होने के कारण तिब्बत के लोग भारत को अपना गुरु देश मानता है। खासकर तिब्बत में चीन के दमन और उसे हड़पे जाने के बाद के तिब्बतियों को दलाई लामा के साथ-साथ मिले शरण के कारण विशेष लगाव है। दलाई लामा भी भारत के इस ऋण को स्वीकार करते हैं और वह इसकी चर्चा दुनिया में विभिन्न मंचों पर भी खुलकर करते हैं। दूसरी तरफ भारत से चीन के शासकों की किरकिरी का कारण तिब्बत का सवाल और दलाई लामा है। लेकिन तिब्बत भारत की ताकत का एक हिस्सा है। कूटनीति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। फिर भी भारत सरकार इसकी अनदेखी करती है। भारत की सरकार को आज भी चीन का डर सताता है और भारत की जनता खुलकर तिब्बत की आजादी की वकालत करती है।
मालूम हो की कभी भारत की सीमा के बीच चीन का कोई अस्तित्व नहीं था। 1950 से पहले भारत की सीमा तिब्बत से जुड़ती थी। जो एक बफर राष्ट्र था और इसके कारण हिमालय की सुरक्षा भी थी लेकिन बाद के काल में तिब्बत पर चीन के कब्जे के कारण भारत और चीन के बीच सीमा का विवाद शुरू हुआ और इसकी परिणति 1962 के चीनी युद्ध के साथ हुई। आज भी भारत और चीन के बीच सीमा का विवाद जारी है। बीते साल इसके कारण सीमा पर युद्ध की स्थिति तक पैदा हो गई थी। हमले और जवाबी हमले भी हुए थे। चीन से सीमा पर खतरे को लेकर पूर्व रक्षा मंत्री और तिब्बत आंदोलन के समर्थक रहे जॉर्ज फर्नांडिस ने अगाह भी कराया था। आज भी घुसपैठ की कोशिश जारी है। चीन कभी अरुणाचल पर दावा कर रहा है तो कभी उसकी नजर सिक्किम पर जाकर टिक जाती है। वह भूटान को भी अपनी ललचाई नजर से देख रहा। नेपाल जैसा खतरा भूटान में भी बना हुआ है। ऐसी स्थिति में भारत को भी अमेरिका, पश्चिम के मित्र राष्ट्रों और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश का अनुकरण करना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के लिए तिब्बत पर दबाव बनाने का यह सही समय है। अन्यथा भारत के लिए तिब्बत की अपेक्षा खतरनाक साबित हो सकती है। यह हिमालय पर पर्यावरण के बढ़ते खतरे और सीमा पर बढते तनाव की दृष्टि से भी जरूरी है।
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