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सड़क से संसद तक जनता की आवाज थे : जॉर्ज फर्नांडिस

- प्रभात कुमार

परिचितों और शुभचिंतकों के बीच जॉर्ज साहब के नाम से परिचित पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस सड़क से लेकर संसद और सरकार तक जीवनपर्यंत गरीब-गुरबा, मजदूर किसानों, दलित, पिछड़ी जातियों और उनसे जुड़े जन सरोकारों के मुखर प्रवक्ता और पैरोकार रहे। वह पूंजीवाद, परिवारवाद और संप्रदायवाद के घोर विरोधी थे। उन्होंने कभी भी परिवारवाद को पसंद नहीं किया। समाजवाद उनके जीवन में रचा-बसा था। सादगी, सहजता और सरलता हमेशा उनकी जिंदगी का हिस्सा बनी रही। उन्हें करीब से जाननेवाले लोग कहते हैं कि उनकी जरूरत एक जोड़ा कमीज और पायजामा तक सीमित थी। अक्सर अपने कपड़े वह खुद धो लेते थे। उनकी निष्ठा व्यक्ति में नहीं जमात में थी। उन्होंने साधारण से साधारण व्यक्ति को विधायक सांसद और मंत्री बनवाया। वह विशुद्ध लोहियावादी थे। 

बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार कहते हैं कि अगर जॉर्ज साहब नहीं होते तो उनके जैसा साधारण कार्यकर्ता आज मंत्री नहीं बनता। वह बताते हैं कि जॉर्ज साहब जब नालंदा से सांसद बने तब उन्हें उनका अगाध स्नेह और प्यार मिला। वह इतने साधारण व्यक्ति थे कि मुंबई के फुटपाथ पर भी रातें गुजारी और नई दिल्ली के तीन कृष्ण मेनन मार्ग के बंगले में भी रहे, लेकिन उनका दिल हमेशा आम लोगों के लिए एक जैसा रहा। उनका बंगला हमेशा आम जनता के लिए खुला रहा। इसमें कभी ताले नहीं लगे। जब वह देश के रक्षा मंत्री भी बने, तब भी उनके बंगले का गेट हमेशा सभी के लिए खुला ही रहा। यह उनके जनता के प्रिय नेता होने का सबसे बड़ा परिचय था।

जॉर्ज साहब हमेशा जनतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष करते रहे। चाहे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक रहे या मजदूरों के नेता, उनका संघर्ष कभी नहीं रुका। वह विप्लव, विद्रोह, क्रांति, उथल-पुथल, संघर्ष बगावत और गदर के हमेशा समर्थक बने रहे। आपातकाल में प्रतिरोध के वह नायक रहे। यही नहीं केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद वह सड़क पर भी बने रहे। जॉर्ज जब तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक रहे, भाजपा ने अपने तमाम विवादास्पद मुद्दों को पिटारे में बंद रखा। वह हमेशा राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय सवालों पर भी मुखर रहे। तिब्बत की आजादी का संघर्ष हो या म्यांमार (बर्मा ) में जुंटा सैनिक शासन के खिलाफ जनांदोलन के सहयोग-समर्थन में वह हमेशा आगे और मुखर रहे। एक समय की बात है। जॉर्ज साहब को जब मालूम हुआ कि अमेरिका ने लेबनान पर हमला कर दिया है, तब उन्होंने अपने चार साथियों के साथ मिलकर विरोध दर्ज कराने के लिए नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास सामने पहुंच गए। समाजवादी नेता क्रांति प्रकाश बताते हैं कि उन्होंने वहां नारेबाजी की। ‘अमेरिका गो बैक’ के नारे लगाए। वह बताते हैं कि वह कभी सांप्रदायिक नहीं रहे। उन्होंने हमेशा जाति और मजहब से ऊपर उठकर राजनीति की। अगर वह आज जिंदा होते तो देश में जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसका वह कदापि समर्थन नहीं करते।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहते वह हमेशा सांप्रदायिक एवं विभाजनकारी मुद्दों को लेकर अपनी बेबाक राय रखते थे। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी कांग्रेस और संप्रदायवाद से कोई समझौता नहीं किया। हमेशा दोनों के खिलाफ मुखर रहे। 

उनका स्वभाव शुरू से विद्रोही रहा। कर्नाटक के मंगलौर में पैदा हुए जॉर्ज के माता-पिता ने बचपन में उन्हें पादरी बनाने के लिए चर्च भेजा। लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा। वह मंगलोर से बंबई चले आए। सड़कों पर रातें गुजारी। कुली का काम किया। टैक्सी चलाई। पत्रकार बन गए। कुछ दिनों में देखते-देखते ही वह मजदूरों के बड़े नेता बन गए। 1960 में उनके नेतृत्व में बंबई में ऐतिहासिक हड़ताल हुई। फिर यहीं से शुरू हुई उनकी एक नई जिंदगी की कहानी। वह देखते-देखते मुंबई और फिर देश के बड़े मजदूर नेता बन गए। उनके एक आह्वान पर मुंबई का जनजीवन ठहर जाता था। साठ के दशक में बंबई महानगर निगम के पार्षद बन गए। इसके बाद दक्षिणी बंबई से कांग्रेस के दिग्गज नेता एस के पाटिल को हराकर पहली बार संसद (लोकसभा) पहुंचे। मालूम हो कि चुनाव से पहले वहां से तीन बार सांसद रहे कांग्रेस के अपराजेय कहे जानेवाले कद्दावर नेता एस के पाटिल ने कहा था कि भगवान भी उन्हें वहां नहीं हरा सकता। लेकिन मुंबई के एक पार्षद जॉर्ज से उन्हें करारी हार झेलनी पड़ी। 

लेकिन उसी 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा लहर में वह उसी बंबई दक्षिण से चुनाव हार गए। तब-तक वह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मजदूर नेता के रुप में स्थापित हो चुके थे । रेलवे के बड़े मजदूर नेता बन गए थे। उनके नेतृत्व में 1974 के रेल, डाक-तार व केंद्रीय कर्मचारियों की हड़ताल ने पूरे देश का चक्का जाम कर दिया था। जिसके कारण वह इंदिरा सरकार की नजर में सबसे बड़े खलनायक बन गए थे। जो जीवन पर्यंत जारी रहा।

आपातकाल के दौरान प्रतिरोध की आवाज सुनाई दे, इस इरादे से उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों के साथ डायनामाइटों का भी सहारा लिया। बड़ौदा डायनामाइट कांड में वह गिरफ्तार हुए। उन्हें दिल्ली के तिहाड़ जेल में हथकड़ी बेड़ियों में जकड़कर रखा गया। आपातकाल के दौरान ही हुए लोकसभा के चुनाव में मुजफ्फरपुर के लोगों ने जेल में रहते चुनाव लड़े जार्ज को ऐतिहासिक बहुमत से जिताकर लोकसभा में अपना प्रतिनिधि चुना और वह केंद्र सरकार में मंत्री भी बने। जॉर्ज खुद बताते थे कि मुजफ्फरपुर की जनता का उनके ऊपर बहुत बड़ा कर्ज है। जिसे वह जीवन पर्यंत नहीं चुका सकते। मुजफ्फरपुर के लोगों ने मुझे नई जिंदगी दी है। एक नया मुकाम दिया है।

मुजफ्फरपुर को मिनी मुंबई बनाने का सपना पहली बार जॉर्ज ने ही 1977 में दिखाया था, जब वह जेल से चुनाव जीते थे। जेल में होने के बावजूद जॉर्ज 3 लाख 34 हजार से भी अधिक वोटों से तत्कालीन कांग्रेस के एक दिग्गज नेता नीतीश्वर प्रसाद सिंह को हराया था। तब उनके प्रचार की कमान उनकी पत्नी लैला फर्नांडिस और सुषमा स्वराज ने संभाली थी। शहर से गांव तक जॉर्ज साहब का हथकड़ी लगा कट आउट घूमता था और जगह-जगह जनसभाओं को यह दोनों संबोधित करती थीं। पूर्व एमएलसी गणेश भारती बताते हैं कि तब हम लोग स्कूली छात्र थे। फिर भी जॉर्ज साहब का पोस्टर लेई लगाकर लगा कर दीवारों पर चिपकाते और घर-घर में उनका पर्चा बांटते।

गांधी शांति प्रतिष्ठान के पूर्व राष्ट्रीय सचिव सुरेंद्र कुमार बताते हैं कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ही जॉर्ज साहब को मुजफ्फरपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार बनाया था। इसका कारण यह भी था कि मुजफ्फरपुर जयप्रकाश आंदोलन का बड़ा केंद्र था और इमरजेंसी दौरान सरकार के खिलाफ आंदोलन में काफी सक्रिय रहा था । 

जॉर्ज के शिष्य रहे छात्र नेता एवं सिंडिकेट सदस्य डॉ. हरेंद्र कुमार भी बताते हैं कि जॉर्ज जिस तरह से इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आंखों पर चढ़ गए थे। जिसके कारण उन्हें बड़ौदा डायनामाइट कांड में देशद्रोह के मुकदमे में फंसाने की सुनियोजित साजिश की गई थी। इसे देखते हुए उनके लिए जेपी ने मुजफ्फरपुर को चुना। उनकी दृष्टि में यह सीट जॉर्ज के लिए काफी सुरक्षित समझी गई। वरीय पत्रकार प्रमोद कुमार बताते हैं कि जेपी को मालूम था कि मुजफ्फरपुर के लोगों का दिल काफी बड़ा है। वह पहले भी जेबी कृपलानी और अशोक मेहता को मुजफ्फरपुर से चुनाव जिता चुके हैं। जेपी की सोच सही साबित हुई और मुजफ्फरपुर जॉर्ज के लिए सुरक्षित चुनाव क्षेत्र बना।

हालांकि जातिवाद के लिए कुख्यात रहे बिहार और मुजफ्फरपुर में जॉर्ज जैसे ईसाई लिए पांच बार लोकसभा का चुनाव का जीतना, कम आश्चर्यजनक नहीं रहा। पहला चुनाव तो जेल से ही जीत गए। फिर भी चुनाव के दौरान संसदीय क्षेत्र में जनता उनकी जाति जानने के लिए नेताओं से सवाल करती थी। बड़ी संख्या में लोग उनके नाम का उच्चारण तक स्पष्ट रूप से नहीं कर पाते। कोई उन्हें जार्ज साहब कहता तो कोई फरनानिस कहता। जितनी मुंह उतने नाम। जाति का भी हाल कुछ इसी तरह का था। कोई उन्हें कर्नाटक का मछुआरा तो कोई खेतिहर ब्राह्मण बताता। जहां जिस क्षेत्र में जिस जाति की आबादी अधिक होती। वहां उनके उसी जाति का होने की बात होती। 

1980 में भी यही सिलसिला चलता रहा। लेकिन यह चुनाव काफी कांटे का रहा। बिहार में मंडल कमीशन को लेकर आंदोलन के कारण जातिवादी राजनीति चरम पर थी। फिर भी भूमिहारों के बड़े नेता दिग्गज सांसद दिग्विजय नारायण सिंह भी को करारी हार हुई।

जिसके कारण एक खास समुदाय में काफी तीखी प्रतिक्रिया को झेलना पड़ा। इसके कारण 1984 का चुनाव वह मुजफ्फरपुर से नहीं लड़े और अपने गृह शहर मंगलोर से चुनाव लड़ने का कर्नाटक चले गए। लेकिन वह वहां बहुत कम मतों से चुनाव हार गए। फिर वाह बिहार लौटे और बांका से लोकसभा का उप चुनाव लड़े, लेकिन वहां भी उन्हें हार मिली। इसके बाद 1989 के लोकसभा चुनाव में उनकी फिर मुजफ्फरपुर वापसी हुई। 1989 के चुनाव में भी  भूमिहार समाज के दूसरे दिग्गज नेता ललितेश्वर प्रसाद शाही को हराया। इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में रेल मंत्री बने। इसके बाद 91 के चुनाव में फिर जिले के अन्य दिग्गज भूमिहार नेता रघुनाथ पांडे को चुनाव में हराया। 

इसके बाद समता पार्टी का गठन किया और 1996 और 98 का चुनाव नालंदा से लड़ा। 10 सालों के बाद फिर 2004 में वह मुजफ्फरपुर लौटे और राजद के उम्मीदवार डॉ.भगवान लाल सहनी को हराकर लोकसभा पहुंचे लोकसभा पहुंचे। 

सिर्फ एक बार मुजफ्फरपुर से 2009 में हारे। लोग बताते हैं कि दल के भरोसेमंद साथियों के विश्वासघात से नाराज होने के कारण खराब स्वास्थ्य के बावजूद वह निर्दलीय चुनाव लड़ गए। जाननेवाले बताते हैं कि 2009 में वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नाराज थे जिसके कारण वह अस्वस्थ होने के बावजूद चुनाव में निर्दलीय खड़े हो गए। लेकिन शरीर ने साथ नहीं दिया और उन्हें चुनाव अभियान के बीच ही चुनाव को छोड़कर लौटना पड़ा। काफी निराशा भी हुई । इसके बावजूद मुजफ्फरपुर की जनता ने उन्हें 25000 से अधिक वोट दिए। इसके बाद में एक बार वह राज्यसभा भी गए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही 2009 में निर्विरोध बिहार से राज्यसभा भेजा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वास्थ्य के कारण उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन पार्टी के ही कुछ नेताओं ने उन्हें दबाव देकर चुनाव में खड़ा करा दिया था।

जॉर्ज और मुजफ्फरपुर का नाता अटूट रहा। जॉर्ज खुद कहते थे कि जो प्यार उन्हें अपनी जन्म धरती मंगलोर से नहीं मिला। वह मुजफ्फरपुर ने दिया। 2009 में उन्होंने अपने अंतिम बातचीत में मुझे बताया था कि अस्वस्थ होने के बावजूद जनता की मांग पर यहां चुनाव लड़ने आ गया हूं। अब परिणाम चाहे जो हो। वह मैदान से वापस नहीं होंगे। वह अपने अंतिम चुनाव में भी मुजफ्फरपुर के विकास को लेकर चिंतित थे और उनकी इच्छा थी कि जो सपना इस शहर को लेकर यहां के लोगों को जो सपना दिखाया था।  वह उसे पूरा कर दिखा सके। उन्होंने प्रेस वार्ता में मुझसे बताया था कि अगर वह चुनाव जीते तो इसी शहर में किसी से जमीन लेकर एक छोटा सा मकान बनाएंगे और जीवन के अंतिम क्षण यहां के लोगों के साथ गुजारना चाहेंगे।

मुजफ्फरपुर से उनके आगाध स्नेह का हाल यह था कि जीवन के अंतिम दिनों में भी मुजफ्फरपुर से किसी के उनके निवास पर आने की सूचना से वह मिलने के लिए बेचैन हो जाते थे। एक बार मैं अपने एक मित्र के साथ उनके तीन कृष्ण मेनन मार्ग पर स्थित कोठी पर ही उनसे मिलने पहुंचा। तब वह आराम कर रहे थे। लेकिन जैसे ही उनके कानों तक यह बात पहुंची कि मुजफ्फरपुर से कोई मिलने आया है। उन्होंने तत्काल सेवक को आदेश दिया- 'आने दो'। फिर किसी तरह से अस्वस्थ आवाज में मुजफ्फरपुर और यहां के लोगों की बारे में जानकारी ली। फिर अपने सेवक को मुझे चाय-नाश्ता करा कर जाने देने का निर्देश दिया। मुजफ्फरपुर के साथ जार्ज के अटूट संबंध था। इसका एक कारण काफी दिनों तक स्थानीय जनप्रतिनिधि होना था। मुजफ्फरपुर ही नहीं जॉर्ज का पूरे  बिहार के विकास में अहम योगदान था। सबसे पहले प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार में उद्योग मंत्री बनने के बाद जॉर्ज ने सबसे पहले मुजफ्फरपुर और यहां की जनता की बेहतरी के लिए सोचना शुरू किया। यहां बरसों से बनकर तैयार आईडीपीएल को चालू कराया। भारत वैगन फैक्ट्री का राष्ट्रीयकरण किया। उसे नई गति दी। इसके बाद 1978 में मुजफ्फरपुर को दूरदर्शन केंद्र की सौगात दी। मालूम हो कि मुजफ्फरपुर बिहार का पहला कस्बाई शहर था। जहां दूरदर्शन केंद्र खुला। यह देश के गिने चुने दूरदर्शन केंद्र में शामिल था। यह बिहार का पहला दूरदर्शन केंद्र था।

 उन्होंने उत्तर बिहार में बिजली के संकट को देखते हुए मुजफ्फरपुर में कांटी थर्मल पावर स्टेशन की नींव रखी। वह मुजफ्फरपुर के विकास के लिए उद्योग मंत्री के रूप में जापान गए। फिर वहां से लौटने के बाद मुजफ्फरपुर में लघु,सूक्ष्म एवं मध्यम उद्योगों का जाल बिछाने के लिए एक इसकी एक इकाई की स्थापना की। जिसके कारण औद्योगिक प्रांगण बेला को उत्तर बिहार औद्योगिक प्रांगण में तब्दील हो सका। बेला के विकास में जॉर्ज की अहम भूमिका रही। उनके प्रयास से औद्योगिक प्रांगण में चमक आई। मुजफ्फरपुर में लिज्जत पापड़ के एक इकाई की भी स्थापना की गई। रोजी रोजगार के विकास के लिए और भी कई प्रयास उन्होंने किया। लेकिन महज दो साल से कुछ अधिक दिनों तक ही जनता सरकार चल सकी। उसके बाद चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में नई सरकार बनी। जो बहुमत भी सिद्ध नहीं कर सकी।

1980 में लोकदल से मुजफ्फरपुर से चुनाव तो जीते। लेकिन केंद्र में इंदिरा सरकार की वापसी हो गई। जिसके कारण वह मुजफ्फरपुर के अधूरे सपने को पूरा नहीं कर सके।

1989 में फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी और वह रेल मंत्री बने। तब उन्होंने मुजफ्फरपुर को आदर्श रेलवे स्टेशन की सौगात दी। साथ ही मुजफ्फरपुर से बगहा होकर गोरखपुर को जोड़ने के लिए छितौनी के पुल को चालू कराया। नई दिल्ली के लिए वैकल्पिक रेलवे लाइन उपलब्ध कराया। जिसके कारण मुजफ्फरपुर की गोरखपुर से दूरी लगभग 50 किलोमीटर कम हो गई। बगहा-छितौनी  होकर गोरखपुर जाने का रास्ता बरसों से बंद था। जिसे उन्होंने चालू कराया। लेकिन दुर्भाग्यवश यह भी सरकार एक साल ही लगभग चली।

 जिसके कारण फिर मुजफ्फरपुर को लेकर अपने सपने को वह पूरा नहीं कर सके। 1991 में भी वह मुजफ्फरपुर से चुनाव तो जीत गए, लेकिन कांग्रेस सरकार की वापसी के कारण फिर जनपथ पर लौट आए। इसके बाद 1996 से लेकर 2004 तक वह नालंदा से सांसद बने। वहां के विकास के लिए ही काम किया। इलाके को कई सौगात दिए। जिसमें आयुध कारखाना महत्वपूर्ण है।

2004 में मुजफ्फरपुर से फिर सांसद बने लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की वापसी नहीं हो सकी। जिसके कारण वह विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर रहे। आखिरकार जो सपना मुजफ्फरपुर को लेकर उनका था वह अधूरा ही रहा। फिर भी मुजफ्फरपुर को जो सौगात उन्होंने दिया। उसकी बराबरी कोई दूसरे जन प्रतिनिधि आज तक नहीं कर सके। छात्र नेता अनिल कुमार सिन्हा कहते हैं कि आज तो हमारा सांसद संसद में हमारे हक की बात भी ठीक से नहीं उठा पाता। शहर को या इस संसदीय क्षेत्र को सौगात देने की बात तो दूर रही। जार्ज के बीमार होने के बाद जन आंदोलनों की धारा मृत सी हो गई। बिहार में कई मुद्दों को लेकर उन्होंने आंदोलन किए। 1989 में मोतीपुर के गन्ना किसानों के लिए चीनी मिल प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन और बगहा में छितौनी पुल के लिए धरना, प्रदर्शन व आंदोलन हुए। फिर 1995 से 2005 तक बिहार में जंगल राज के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा किया। इस दौरान जॉर्ज साहब पर लाठी डंडे भी बरसे। शहर के वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद कुमार बताते हैं कि 1994 में लालू प्रसाद यादव की सरकार में मुजफ्फरपुर जिले के फकुली में उन पर  कातिलाना हमला भी किया गया। यही हमला लालू-राबड़ी सरकार के खात्मे के लिए सबसे बड़ा कारण बना। वैसे तो 1980 में भी जॉर्ज साहब की सभा में कंपनी बाग में रोड़े  बरसे, लेकिन वह डिगे तक नहीं। पत्रकार प्रमोद कुमार बताते हैं कि मोतीपुर में भी चीनी मिल के खिलाफ आंदोलन को लेकर उनकी पुलिस द्वारा लाठी से पिटाई की गई थी। छितौनी में भी लाठीचार्ज हुआ। वह कई बार जेल भी गए। वह बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ रहे और स्वदेशी आंदोलन के पक्ष में लंबा आंदोलन किया। लेकिन अब जॉर्ज के बाद बिहार में कोई बड़ा जन आंदोलन नहीं हुआ। जन सरोकार के सवाल पर आज कोई नेता नहीं बचा है जो उनकी तरह ज्वलंत सवालों को मुखर होकर उठाए और आंदोलन करे।

(लेखक प्रभात कुमार राजनीतिक विश्लेषक एवं बिहार में हिंदुस्तान हिंदी दैनिक के सीनियर रिपोर्टर रहे हैं)

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