- राह में कांटे उगाने व घेराबंदी के बावजूद मनीष वर्मा को मिली जनता दल यूनाइटेड में जगह
- प्रभात कुमार
जनता दल यूनाइटेड में एक और नौकरशाह की एंट्री हो गई है। मनीष वर्मा अब जदयू के राष्ट्रीय महासचिव हो गए हैं। राजनीतिक हलके में कुछ लोगों को बेचैन करने वाले इस कदम के साथ ही मीडिया में यह भी सवाल उठ रहा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नौकरशाह ही क्यों पसंद है? वह महत्वपूर्ण जवाबदेही के लिए आईएएस-आईपीएस अधिकारी को ही क्यों पसंद करते हैं? उनका राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह ऐसे लोगों पर ज्यादा भरोसा है, जबकि कई राजनेता बने उनके खासमखास उन्हें धोखा भी दे चुके हैं। जिसमें राज्यसभा के सदस्य रहे कई नाम की चर्चा होती रहती है।
भले ही इस सूची में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश का नाम शामिल नहीं है, लेकिन उन्होंने भी अपने करियर की शुरुआत बैंक के एक बड़े अधिकारी के रूप में की थी। आईपीएस अधिकारी सुनील कुमार अभी भी नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। वह भरोसे के मंत्री माने जाते हैं। वैसे, मीडिया में लगातार इन सवालों को लेकर ढोल-नगाड़ा पीटे जाने के बावजूद मनीष वर्मा को राष्ट्रीय महासचिव बनाने की घोषणा कर दी गई। जब से उनके नाम की चर्चा राजनीति में प्रवेश को लेकर शुरू हुई थी, तब से लगातार उनकी घेराबंदी करने के साथ उनकी राह में कांटे उगाने की हर संभव कोशिश की जा रही थी।इसके बावजूद मनीष वर्मा को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आखिरकार निर्णय लेना ही पड़ा।
कार्यकर्ताओं की नाराजगी ने किया बेचैन : हालांकि इस कारण जनता दल यूनाइटेड के ग्रास रूट वर्करों और कोर वोटरों में नाराजगी भी है। मनीष वर्मा को राजनीति में लाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कई पुरस्कार बांटने पड़े हैं। सबसे पहले पार्टी के नीति के प्रतिकूल (एक व्यक्ति दो पद) देना पड़ा है। उन्होंने सबसे पहले राज्यसभा में संजय झा को संसदीय दल का नेता बनाया, जबकि वह राज्यसभा के सबसे नए सदस्य हैं। उन्हें भारतीय जनता पार्टी से लोकसभा चुनाव के पहले समझौता करने के इनाम के तौर पर राज्यसभा भेजना पड़ा। इसके बावजूद जब मनीष वर्मा को राजनीति में प्रवेश का मामला सामने आया और चर्चा शुरू हुई तब उन्हें जनता दल यूनाइटेड का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया गया। इससे पहले वह बार-बार चुनाव हारने के बावजूद विधान परिषद में भेजे गए। मलाईदार विभाग के मंत्री भी बने। लेकिन जब मनीष वर्मा को सिर्फ जनता दल यूनाइटेड की प्राथमिक सदस्यता दिलाई गई तो कुछ हिस्सों से उन पर कई तरह का कीचड़ उछाला गया। उड़ीसा कैडर के आईएएस अधिकारी रहे मनीष वर्मा की कुंडली खंगाल डाली गई। घोटाला और गड़बड़ी के मामलों की चर्चा तक से वह घेरे गए। लेकिन संजय झा जब पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, तब उनकी कुंडली को खंगालने की कोई जरूरत नहीं समझी गई।
यह दो चेहरा और दो रंग मीडिया में अपने कुछ खास चहेतों के जरिए भी दिखाने की कोशिश हुई, जो राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी के बहाने 'रॉयल ब्लड' की बात करता है।
मालूम नहीं रॉयल ब्लड की उत्पत्ति कहां से हुई लेकिन जिनका इस राज्य में पहले से शासन पर कब्जा रहा है और अभी भी देश से प्रदेश तक महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा है, उनके रॉयल ब्लड की याद राजद के वरिष्ठ नेता रहे अब्दुल बारी सिद्दीकी को क्यों नहीं आती? अथवा यह कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना का मामला है।
कहीं उत्तराधिकार का मामला तो नहीं? मालूम हो कि इसके पीछे कुछ अलग कहानी है। दर्द और पीड़ा का कारण नीतीश कुमार के उत्तराधिकार का मामला है। कुछ नेताओं को भय है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) की तरह मनीष वर्मा को बिहार में दूसरे नंबर की कुर्सी कहीं न सौंप दें। आरसीपी सिंह से मिली मुक्ति के बाद कोई दूसरा बड़ी बाधा ना खड़ी हो जाए। कुछ लोगों में चौतरफा बेचैनी इसी बात को लेकर बनी हुई है।
सवाल उठाकर करते रहे घेराबंदी : मनीष वर्मा भी खुद प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया मीडिया में तरह-तरह के कयासबाजी से परेशान हैं। 29 जून को जब दिल्ली में जनता दल यूनाइटेड की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई, तब मनीष वर्मा का नाम मीडिया में अचानक सुर्खियों में सामने आया। उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाए जाने तक की बात की गई। लेकिन मीडिया के कुछ हलकों ने जैसी बेचैनी दिखाई उससे यह साफ हो गया था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, मनीष वर्मा को लेकर कोई बड़ा फैसला लेना चाहते हैं। तभी मामले को तिल का ताड़ बनाने की कोशिश तेज हो गई, लेकिन परिणाम अनुमान के विपरीत आया। राज्यसभा के सदस्य संजय झा को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी गई। इसके बाद मीडिया में एक बार फिर से जमकर राज्यसभा सदस्य संजय झा की प्रशंसा शुरू हो गई। उनकी राजनीतिक दक्षता से लेकर नीतीश कुमार के संकट मोचक के रूप में उनकी चर्चा चौतरफा हुई। वह जनता दल यूनाइटेड और भाजपा के बीच सेतु बताए गए। पार्टी के संस्थापक रहे जॉर्ज फर्नांडिस तक को मीडिया ने याद किया और बताया कि उस दौर में किस तरह से संजय झा ने नीतीश कुमार की मदद की। दूसरी तरफ सिर्फ मनीष वर्मा ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली तो मीडिया ने उनकी कुंडली खंगाल दी।
सच तो यह है कि संजय झा बैकडोर से ही किसी सदन में पहुंचते रहे हैं। उन्होंने जब भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ा, तब वह हारे। उनके कॅरियर की शुरुआत दिल्ली में एक पत्रकार के रूप में हुई थी लेकिन संभवत वह किसी बड़े पत्र में नहीं रहे। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी से जुड़े और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली से उनका जुड़ाव हुआ और यहीं से राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई।
नेताओं-कार्यकर्ताओं में दिखा आक्रोश पर मनीष वर्मा की जॉइनिंग ने भरा उत्साह : यहां यह ध्यान देना होगा कि जब संजय झा 29 जून को जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए, पूरे बिहार में नीतीश कुमार के इस फैसले के खिलाफ कार्यकर्ताओं में जमकर आक्रोश देखा गया। उन्होंने खुलकर प्रतिक्रिया दी। इसके कारण नीतीश कुमार को बैक डोर से अपने कोर वोटर को मनाने के लिए यह संवाद जारी करना पड़ा।भरोसा दिलाया गया कि मनीष वर्मा को जल्द ही कोई जवाबदेही सौंप जाएगी। इसी क्रम में मनीष वर्मा की राजनीतिक शुरुआत हुई है। उन्हें जनता दल यूनाइटेड का मंगलवार को कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय झा और प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा के समक्ष सदस्यता ग्रहण कराया गया। इस मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे विश्वास पात्र माने जाने वाले मंत्री विजय चौधरी भी कार्यक्रम में मौजूद थे।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि मनीष वर्मा की जॉइनिंग में जिस तरह से पूरे बिहार से जनता दल यूनाइटेड के वफादार और ग्रास रूट के नेताओं और कार्यकर्ताओं में उत्साह दिखा, इसका गवाह कर्पूरी सभागार बना। जो उत्साह देखा गया। वह अपने आप में बहुत बड़ा संकेत था।
दूसरी तरफ मंच पर आसीन नेता और उनके चेहरा का रंग बता रहा था कि कहीं न कहीं वह पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रामचंद्र प्रसाद सिंह के दल छोड़ने के बाद मिले एकाधिकार के बीच मनीष वर्मा को बाधा के रूप में देखते हैं। बहरहाल, मामला जो भी हो। यह सच है कि कई नेताओं के चेहरे पर असहजता साफ तौर पर झलक रही थी। ऐसे में मनीष वर्मा को राष्ट्रीय महासचिव का पद दिया जाना भी एक बड़ी बात है। वैसे, तो उन्हें राज्यसभा भेजा जाना चाहिए और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के वर्तमान स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों को देखते हुए एक बड़ी जवाबदेही जरूरी है।
तेजस्वी का कटाक्ष : जिस तरह से बिहार को लेकर प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने टिप्पणी और कटाक्ष किया है।
"पूरे विश्व में इतना असहाय, अशक्त, अमान्य, अक्षम, विवश, बेबस, लाचार और मजबूर कोई ही मुख्यमंत्री होगा जो BDO, SDO, थानेदार से लेकर वरीय अधिकारियों और यहां तक कि संवेदक के निजी कर्मचारी के सामने बात-बात पर हाथ जोड़ने और पैर पड़ने की बात करता हो?
बिहार में बढ़ते अपराध, बेलगाम भ्रष्टाचार, पलायन एवं प्रशासनिक अराजकता का मुख्य कारण यह है कि एक कर्मचारी तक (अधिकारी तो छोड़िए) मुख्यमंत्री की नहीं सुनता? क्यों नहीं सुनता और क्यों नहीं आदेशों का पालन करता, यह विचारणीय विषय है? हालांकि इसमें कर्मचारी व अधिकारियों का अधिक दोष भी नहीं है। एक कमजोर बेबस मुख्यमंत्री के कारण “बिहार में होना वही है जो “चंद” सेवारत और “सेवानिवृत्त” अधिकारियों ने ठाना है” क्योंकि अधिकारी भी जानते है कि ये 43 सीट वाली तीसरे नंबर की पार्टी के मुख्यमंत्री है। जब शासन में इकबाल खत्म हो जाए और शासक में आत्मविश्वास ना रहे, तब उसे सिद्धांत, जमीर और विचार किनारे रख ऊपर से लेकर नीचे तक बात-बात पर ऐसे ही पैर पड़ना पड़ता है। बहरहाल हमें कुर्सी की नहीं बल्कि बिहार और 14 करोड़ बिहारवासियों के वर्तमान और भविष्य की चिंता है।"
वक्त कठोर फैसले लेने का : पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की टिप्पणी में कितनी सच्चाई है और लालू प्रसाद यादव एवं राबड़ी देवी के शासनकाल में क्या हुआ, क्या होता रहा! सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना ही है कि अगर कुछ भी इसमें सच्चाई है तो दुश्मनों के आक्रमण से पहले सचेत हो जाएं। बिहार में जो वर्तमान राजनीति है और खाई और कुआं के बीच जिस तरह से जनता दल यूनाइटेड की स्थिति है। उसे देखते हुए दीर्घकालीन राजनीति और पार्टी के विस्तार के लिए कुछ कठोर फैसले जरूरी हैं।
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