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फिर से नीतीश, कितना सच-कितना झूठ !

- भाजपा को मजबूत करने में जुटे हैं जदयू के नेता

- पिता के लिए पुत्र को उतरना पड़ रहा है मैदान में

* प्रभात कुमार

फिर से नीतीश, कितना सच- कितना झूठ !


बिहार में नारा भले ही 25 से 30 फिर से नीतीश दिया जा रहा है लेकिन जनता को यह भरोसा नहीं हो रहा। आखिरी एनडीए में वह कौन सी परिस्थिति है। जिसने विश्वास को लेकर सवाल पैदा कर रहा है। अब तक एनडीए का चेहरा साफ होता था और महागठबंधन में चेहरे को लेकर संशय की स्थिति होती थी, लेकिन 2025 का यह पहला चुनाव है जब संशय के बादल एनडीए पर मंडरा रहे हैं। 2005 से लेकर 25 के बीच पहली बार बिहार में ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है। यही नहीं अपने पिता के वकालत के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक कैरियर में पहली बार उनके पुत्र निशांत कुमार को सामने आकर अपनी बातें करनी पड़ रही है। यह पहला विधानसभा का चुनाव है,जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भरोसेमंद मंत्री विधायक और सांसद पर विश्वास नहीं रह गया है। जिसके कारण राजनीति से कोसों दूर हमेशा रहने वाला निशांत अब मोर्चा ले रहा है। 

ऐसी परिस्थिति में यह मान लिया जाए कि केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह हो या जनता दल यूनाइटेड के कार्यकारी अध्यक्ष राज्यसभा सदस्य संजय झा या नीतीश कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्री विजय चौधरी और अशोक चौधरी अब जनता दल यूनाइटेड से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी के वफादार हो चुके हैं। ये मोदी और अमित शाह के नीतीश के मुकाबले अधिक भरोसमंद हैं। वैसे, इस सूची में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कैबिनेट के कौन-कौन मंत्री और सांसद विधायक के साथ-साथ जननायक कर्पूरी ठाकुर के पुत्र और केंद्र में राज्य मंत्री रामनाथ ठाकुर भी आज की तारीख में नीतीश कुमार के कितने हैं। यह तो आने वाले समय में ही तय हो सकेगा। 

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं प्रशासनिक अधिकारियों के मामले में भी कितना भरोसा की स्थिति में है। यह भी अब चर्चा और संदेह का कारण बना हुआ है। खास तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रधान सचिव दीपक कुमार की बात होती है। अब इस मामले में विपक्ष से लेकर सत्ता पक्ष तक सवाल उठा रहा है। मामला बिहार में ला- ऑर्डर का हो या सुशासन अथवा कानून के राज का। मालूम नहीं इतने सवाल, इतने आक्रोश और इतनी बदनामी के बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दीपक कुमार के खिलाफ कार्रवाई से कौन रोक रहा है। वैसे, तो सवाल यह भी है कि जिस तरह की चर्चा बिहार के चार नेताओं को लेकर लगातार जारी है। उसके बावजूद कौन सा डर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को स्वतंत्र फैसला लेने के लिए रोक रखा है।

क्या सवाल अब राजनीति के जानकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के के बीच नहीं। आम- आवाम चिंता का बना हुआ है। सच कह तो लोगों को ऐसा लगता है कि क्या बिहार में भी कोई ईडी और सीबीआई के भय का खेल चल रहा है।

केंद्रीय मंत्री ललन सिंह, जदयू के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष राज्यसभा सदस्य संजय झा, बिहार सरकार के मंत्री विजय चौधरी और अशोक चौधरी से भी बड़े बिहार में एक स्पोक्समैन पत्रकार और राज्यसभा सदस्य हरिवंश इस मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अनसुलझे सवाल को सुलझाने के मामले में क्यों चुप है। अभी तो सरकार भी एनडीए की है और जनता दल यूनाइटेड के राज्यसभा सदस्य के नाते ही राज्यसभा में उपसभापति के पद पर बैठे हैं। यह भी एक बड़ा सवाल है। 

ऐसे में सवाल यह भी उठना है कि हरिवंश जी की सारी यारी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ सत्ता की एक बड़ी कुर्सी तक पहुंचाने के लिए मात्र थी। यह भी सवाल कुछ लोग उठाते हैं।हरिवंश एक राज्यसभा के ऐसे सदस्य रहे हैं, बिहार में एनडीए की सरकार रही हो या महागठबंधन की सरकार रही हो। वह अपनी कुर्सी पर बने रहे। कुछ लोगों का कहना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके लिए दोषी है न कि वे सारे लोग जो उनकी सीढ़ी के सहारे आज केंद्र की सत्ता में अपने लिए जगह बना लिया है। यही नहीं आज की तारीख में जो लोग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नजदीकियों के लिए आतुर हैं। उनका भी लक्ष्य साफ है। 

मालूम हो कि फिलहाल राजनीतिक परिणाम के बारे में अनुमान से अधिक नहीं किया जा सकता है। फिर भी इतना तय है कि राजनीति में इतनी कमजोर स्थिति जब समता पार्टी की नींव पड़ी थी, तब भी वह इस तरह से लाचार- विवश नहीं दिखे। समय कितना बलवान होता है। यह तो कभी-कभी एहसास होता है। अगर इसका एहसास बना रहे तो शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज मुकाम पर खड़े हैं। उस स्थिति की संभावना नहीं थी।

तो 2 महीने के बाद चुनावी भी बिगुल बच जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। फिर भी जिस तरह से जनता दल यूनाइटेड में सिर्फ प्रदेश प्रवक्ता नीरज कुमार सिंह को छोड़कर प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा भी डटकर 20 से 25 फिर से नीतीश की बात नहीं कर पा रहे। जहां तक सवाल एक नेताओं की चौकड़ी का है। उनके गले इस सवाल पर कितने साफ हो पाते हैं। यह तो सब लोगों के सामने है। 

अंत में यह सोचने के लिए बिहार की राजनीति में लोग मजबूर हो रहे हैं कि क्या यह शहंशाह के विदाई का समय नहीं आ गया। जिस तरह से अपने पिता के लिए निशांत को मैदान में आना पड़ रहा है। यह संकेत तो भ्रम जरूर पैदा करता है। वैसे, बिहार की राजनीति से अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विदाई होती है तो यह उसे राजनीति के लिए भी बड़ा खतरा हो सकता है। जिसके कारण बिहार बीते 20 सालों से कुछ बातों को लेकर सुरक्षित था। वैसे इतना अगर जनता नीतीश के भरोसे रहे तो बिहार की वह पहचान भारतीय राजनीति से मिट जाएगी। जो कई दशकों के प्रहार के बावजूद अब तक संभव नहीं हो सका था। नीतीश की विदाई तेजस्वी के लिए आने वाले समय में खतरा नहीं होगा। यह सोचना शायद गलत होगा।

(लेखक प्रभात कुमार दैनिक हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं. वे लोकवार्ता न्यूज पोर्टल के संपादक हैं.)

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